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संस्मरण

वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे

दिवाकर मुक्तिबोध


'शिष्य। स्पष्ट कह दूँ कि मैं ब्रह्मराक्षस हूँ किंतु फिर भी तुम्हारा गुरु हूँ। मुझे तुम्हारा स्नेह चाहिए। अपने मानव जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला , किंतु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य न मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गई और मैं ब्रह्मराक्षस के रुप में यहाँ विराजमान रहा।'

 

'नया खून' में जनवरी 1959 में प्रकाशित कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' मैंने बाबू साहेब से सुनी थी। बाबू साहेब यानी स्वर्गीय श्री गजानन माधव मुक्तिबोध, मेरे पिता, जिन्हें हम सभी, दादा-दादी भी बाबू साहेब कहकर पुकारते थे। यह उन दिनों की बात है जब हम राजनांदगाँव में थे - दिग्विजय कॉलेज वाले मकान में। वर्ष शायद 1960। तब हमें बाबू साहेब यह कहानी सुनाते थे पूरे हावभाव के साथ। हमें मालूम नहीं था कि यह उनकी लिखी हुई कहानी है। वे बताते भी नहीं थे। कहानी सुनने के दौरान ऐसा प्रभाव पड़ता था कि हम एक अलग दुनिया में खो जाते थे। विस्मित, स्तब्ध और एक तरह से संज्ञा शून्य। अपनी दुनिया में तभी लौटते थे जब कहानी खत्म हो जाती थी और ब्रह्मराक्षस अंतरध्यान हो जाता था।

बचपन की कुछ यादें ऐसी होती हैं जो कभी भुलाई नहीं जा सकती। कितनी भी उम्र हो जाए वे अंतःकरण में जिंदा रहती हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है। अक्सर कोई न कोई याद जोर मारने लग जाती है। अतीत को टटोलते हुए मन कुछ पल के लिए ही सही, हवा में उड़ने लगता है। ऐसा पिताजी को लेकर, माँ को लेकर होता है। बाबू साहेब को गुजरे हुए अर्धशती बीत गई। 52 वर्ष हो गए। 11 सितंबर 1964 और माँ शांता मुक्तिबोध 8 जुलाई 2010। हम खुशनसीब हैं कि हम पर माँ का साया लंबे समय तक बना रहा। पिताजी के गुजरने के बाद लगभग 46 वर्षों तक वे हमारे लिए कवच का काम करती रहीं। हमारी शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-चाकरी, शादी-ब्याह, बहू-बेटी, पोते-पोतियों सभी को उन्होंने अपने वात्सल्य से एक सूत्र में बांधे रखा। वात्सल्य का यह धागा अटूट हैं और हम सभी अभी भी साथ-साथ हैं और जिंदगी भर साथ-साथ रहने वाले हैं।

बहरहाल, पिताजी की याद करते हुए मैं कुछ सिलसिलेवार कहने की कोशिश करता हूँ इसलिए ताकि कुछ क्रमबद्धता आए। वरना छुट-पुट प्रसंगों को पहले भी शब्दों में पिरोया जा चुका है। कुछ यत्र-तत्र छपा भी हैं।

जहाँ तक मेरी यादें जाती हैं, शुरू करता हूँ नागपुर से। आज से करीब 60 बरस पूर्व, वर्ष शायद 1954-55। नागपुर की नई शुक्रवारी में हमारा किराये का कच्चा मकान। मिट्टी का। छत कवेलू की। फर्श गोबर से लिपा-पुता। घर में भाई-बहनों में मैं, दिलीप, ऊषा एवं सरोज। हमें नहीं मालूम था हमारा कोई बड़ा भाई भी है जो उज्जैन में दादा-दादी के पास रहता है। एक दिन जब वे नई शुक्रवारी के घर में आए तो पता चला बड़े भाई हैं - रमेश।

6-7 वर्ष की उम्र में कितनी समझदारी हो सकती है? इसलिए नई शुक्रवारी के उन दिनों को लेकर मन में कुछ खास नहीं है। अलबत्ता मकान का स्वरूप और कुछ गतिविधियाँ जरूर ध्यान में आती हैं।

मसलन पिताजी आकाशवाणी में थे। रात में उन्हें घर लौटने में प्रायः विलंब हो जाता था। उनकी प्रतीक्षा में माँ घर के बाहरी दरवाजे पर चौखट पर, घंटों बैठी रहती थी। कुछ टोटके भी करती थी, ताकि वे जल्दी घर लौटें। चुटकी भर नमक चौखट के दोनों सिरे पर बाएँ-दाएँ रखती थी। पता नहीं इस क्रिया में ऐसी क्या शक्ति थी। जाहिर है विश्वास जो उन्हें ताकत देता था। मनोबल बढ़ाता था। पिताजी देर रात लौटते। तब तक हम सो चुके होते। आँखों के सामने एक और दृश्य है - दूर कुएँ से पिताजी रोज सुबह या शाम जब जैसी जरूरत पड़े, पानी भरकर लाते थे। दोनों हाथों में पीतल की दो बड़ी-बड़ी बाल्टियाँ लिए उनका चेहरा अभी भी आँखों के सामने हैं, पसीने से नहाया हुआ। बाल्टी से छलकता हुआ पानी, पसीने की बूँदें और तेज चाल।

उन दिनों की न भूलने वाली एक और घटना हैं - स्कूलिंग की। स्कूल में दाखिले के वक्त की। स्कूल का पहला दिन प्रायः सभी बच्चों के लिए भारी होता है। उनका जी घबराता है। रोना-धोना शुरू कर देते हैं। माँ-बाप का हाथ नहीं छोड़ते। शिक्षकों को उन्हें चुप कराने, मनाने में पसीना आ जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। बल्कि अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही। एक दिन पिताजी मुझे गोदी में उठाकर स्कूल ले गए। कक्षा पहिली में दाखिले के लिए। कक्षा में जब तक वे साथ में थे, मैं दहशत में होने के बावजूद खामोश था। वे मुझे पुचकारते हुए, दिलासा देते रहे और फिर कक्षा के बाहर निकल गए। कुछ पल मैंने इंतजार किया और फिर जोर की रुलाई फूट पड़ी। शिक्षक रोकते, इसके पूर्व ही मैं कक्षा से बाहर। सड़क पर दूर पिताजी जाते हुए दिख पड़े। मैं रोते हुए उनके पीछे। पता नहीं कितना सफर तय हुआ। न जाने किस अहसास से एकाएक वे पलटे और पीछे मुझे देखकर हैरान रह गए। लौटे, मुझे गोद में लिया, पुचकारा, चुप कराया और फिर नीचे उतारकर उँगली पकड़कर मुझे घर ले आए।

स्कूल न जाने का परिणाम यह निकला कि मेरी बड़ी बहन जो उसी स्कूल में कक्षा तीसरी में पढ़ती थी, उसे मेरे साथ पहली में बैठाया गया। आज बड़ी बहन भी दुनिया में नहीं है। पर उसका मासूम त्याग व बालपन की तसवीर दिलो-दिमाग में जस की तस है।

नई शुक्रवारी के बारे में और ज्यादा कुछ याद नहीं। इतना जरूर है कि जाफरीनुमा कक्ष में बैठकें हुआ करती थी, चाय-पानी का दौर चलता था। बैठकों में शामिल होने वाले पिताजी के मित्रों में मुझे शैलेंद्र कुमार जी का स्मरण है। नागपुर नवभारत के संपादक। एक कारोबारी भी थे मोटेजी। विचारों से कामरेड। उनके यहाँ हमारा आना-जाना काफी था। उनकी पत्नी वत्सलाबाई मोटे माँ की अच्छी सहेली थी। मुझे याद नहीं, स्वामी कृष्णानंद सोख्ता उस घर में आया करते थे। साप्ताहिक 'नया खून' के संपादक। विशाल व्यक्तित्व और दबंग आवाज। भैया बताते हैं - नई शुक्रवारी की उस मकान में हमारे यहाँ आने वालों में प्रमुख थे सर्वश्री स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, जीवनलाल वर्मा विद्रोही, प्रमोद वर्मा, शरद कोठारी, लज्जाशंकर हरदेनिया, के.के. श्रीवास्तव, श्रीकांत वर्मा, रामकृष्ण श्रीवास्तव, अनिल कुमार, मुस्तजर, भीष्म आर्य और नरेश मेहता।

स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के बारे में याद हैं वे हमारे गणेशपेठ के मकान में अक्सर आया करते थे। जीवनलाल वर्मा व्रिदोही, प्रमोद वर्मा, रम्मू श्रीवास्तव, हरिशंकर परसाई, टी.आर. लूनावत, भाऊ समर्थ और प्रभात कुमार त्रिपाठी (जबलपुर) इन विद्वानों के चेहरे याद हैं। लेकिन कांतिकुमार जैन जिनके संस्मरण बहुचर्चित माने जाते हैं, घर कभी नहीं आए। न नागपुर के दोनों मकानों में आए न राजनांदगाँव में। बहरहाल घर में होने वाली साहित्यिक बहसों में और भी लोग शामिल रहते थे, पर अधिक कुछ स्मरण नहीं। सोख्ता जी का स्मरण इसलिए कुछ ज्यादा है क्योंकि वे आते ही हम लोग के साथ घुल मिल जाया करते थे। छोटे भाई दिलीप को कंधों पर बिठा लेते थे और इसी अवस्था में पिताजी के साथ चर्चा करते थे। चूँकि कच्ची उम्र दुनिया से बेखबर वाली होती है इसलिए साप्ताहिक 'नया खून' के बारे में हम विशेष कुछ जानते नहीं थे। यह उस समय का गंभीर वैचारिक साप्ताहिक पत्र था जिसकी महाराष्ट्र एवं महाराष्ट्र के बाहर, बुद्धिजीवियों की जमात में अच्छी पकड़ थी, प्रतिष्ठा थी।

गणेशपेठ निवास में दो घटनाएँ स्मृतियों में बेहतर तरीके से कैद है - पहली - मेरी छोटी बहन सरोज से जुड़ी हुई है। बहुत सुंदर थी, घुघराले बाल थे उसके। एक बार उसे बुखार आया। पता नहीं कितने दिन चला। लेकिन एक दिन माँ ने देखा वह बिस्तर पर नहीं थी। ढूँढ़ा गया तो वह मकान से अलग-थलग, बाथरूम में फर्श पर दोनों घुटनों को मोड़कर, गठरीनुमा पड़ी हुई थी। शायद बुखार तेज था, बर्दाश्त नहीं हो रहा था, सो वह शरीर को ठंडा करने गुसलखाने में पहुँच गई थी। वह नहीं रही। उसके न रहने का सदमा, कैसा और कितना गहरा था, मैं नहीं जानता था अलबत्ता माँ का रो-रोकर बुरा हाल था, और पिताजी गुमसुम से थे। अब सोचता हूँ उन्होंने किस कदर अपने आपको संयमित रखा होगा, कैसे इस अपार दुख से उबरने की कोशिश की होगी।

दूसरा प्रसंग - प्रायमरी में पढ़ता था। कक्षा याद नहीं। एक दिन स्कूल से लौटा। माँ ने खाना खाने बुलाया। रसोई में मैं और माँ खाना खाने बैठे। खाते-खाते माँ ने मुझे दाल परोसने के लिए गंजी में बड़ा चम्मच डाला तो उसमें एक मरी हुई छिपकली आ गई जो फूलकर काफी मोटी हो गई थी। छिपकली को देखते ही माँ को मितली शुरू हो गई और भागकर गुसलखाने में चली गई और उल्टियाँ करने लगी। मुझे पर मरी छिपकली का कोई असर नहीं हुई। मैं मजे से कटोरी में परोसी हुई दाल खाता रहा जब तक माँ लौट न आई। मुझे उल्टियाँ नहीं हुई। कुछ भी विचित्र सा नहीं लगा। लेकिन तनिक स्वस्थ होने के बाद माँ हाथ पकड़कर उसी अवस्था में पैदल जुम्मा टैंक के निकट स्थित 'नया खून' के दफ्तर ले गई। पिताजी को बाहर बुलाया, बताया। और फिर मुझे मेयो हॉस्पिटल में भर्ती कर दिया गया। शरीर से विष निकालने के लिए डाक्टरों ने क्या प्रयत्न किए नहीं मालूम। अलबत्ता मैं कुछ दिन तक अस्पताल में पड़ा रहा। दीन-दुनिया से बेखबर। माँ-पिताजी की चिंता से बेखबर। माँ को चूँकि उल्टियाँ हो गई थी इसलिए वे लगभग स्वस्थ थी। हालाँकि वे भी अस्पताल में भर्ती थी। मेरी चिंता उन्हें खाए जा रही थी। उन्हें इस बात का अफसोस था अँगीठी पर रखी दाल की गंजी खुली क्यों छोड़ी। कैसे पता नहीं लगा कि छिपकली कब गिरी। कब से उबल रही थी। बहरहाल यह घटना दिमाग से कभी नहीं गई। छिपकली को देखता हूँ, तो वह दिन याद आ जाता है। अब उसे देख घिन आने लगती है लेकिन मारने की कभी कोशिश नहीं करता। छिपकलियाँ तो घर की दीवारों पर चिपकी रहती ही हैं। इसलिए उन्हें भी जिंदगी के हिस्से के रूप में देखता हूँ क्योंकि वे यादें ताजा करती हैं। अच्छी-बुरी जैसी भी।

इसके पूर्व का एक और प्रसंग - मकान गणेशपेठ का ही। शुक्रवारी से कुछ बेहतर। पक्का खुला मकान। बड़ा सा आँगन। ऊपर छत। पतंगें उड़ाने के लिए और कटी पतंग को पकड़ने के लिए लगभग पूरा दिन हम छत पर ही बिताते थे। पतंगबाजी में खूब मजा आता था। मैं और बड़े भैय्या रमेश। मेरा काम चक्री पकड़ने का रहता था, पतंगें वे उड़ाया करते थे, पैच लड़ाते, काटते-कटते। जब भी कोई कटी पतंग हमारे छत के ऊपर से गुजरती थी, हम धागा पकड़ने के फेर में रहते थे। मुझे याद है एक बार जब ऐसी ही कटी पतंग को पकड़ने की कोशिश की, कुछ बड़े लड़के अपशब्दों की बौछार करते हुए घर में लड़ाई करने आ गए। वे काफी उत्तेजित थे और मारने-पिटने पर उतारू थे। माँ ने किसी तरह समझाकर उन्हें विदा किया। हमें जो डाँट पड़ी, वह किस्सा तो अलग है। इस घटना का ऐसा असर हुआ कि हम कुछ दिन तक छत पर ही नहीं गए। न मंजा पकड़ा और न ही पतंगें उड़ाईं।

पिताजी आकाशवाणी में ही थे। नया मध्यप्रदेश बनने के बाद उनका भोपाल ट्रांसफर हो गया। इस ट्रांसफर को लेकर वे काफी पसोपेश में थे। क्या किया जाए। जाएँ या नहीं। इस बीच सोख्ताजी के चक्कर यथावत थे। वे घर आते थे और पिताजी की अवस्था देखते थे। अंततः पिताजी ने भोपाल जाना तय किया। उनका बिस्तर बँध गया। एक छोटी पेटी के साथ रस्सी से बँधा उनका बिस्तर हाल में रख दिया गया। शायद दोपहर की कोई ट्रेन थी। हम सब हाल में इकट्ठे थे। इस बीच सोख्ताजी आ गए। पता नहीं उनके बीच क्या बातचीत हुई। नतीजा यह निकला कि बिस्तर खोल दिया गया, पेटी अंदर चली गई और सामान फिर अपनी जगह पर रख दिया गया। पता चला पिताजी ने आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दी और सोख्ताजी के अखबार में संपादक बन गए। लिखने-पढ़ने के लिए उन्हें नया ठिकाना मिला। यह उनके मन के अनुकूल बात थी। अब यह कहने की जरूरत नहीं कि 'नया खून' को नई प्रतिष्ठा मिली और वैचारिक पत्रकारिता को नया आयाम। साहित्य के अलावा 'नया खून' सहित समय-समय पर साप्ताहिक पत्रों के लिए उनके द्वारा किया गया लेखन उन्हें श्रेष्ठ पत्रकार के रूप में भी स्थापित करता है।

नागपुर की यादें बस इतनी ही। उसके अंतिम दृश्य को याद करता हूँ। आज भी जब कभी नागपुर रेलवे स्टेशन से गुजरता हूँ, या रुकता हूँ तो मुझे पिताजी सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए दिखाई देते हैं। हम लोग राजनांदगाँव जाने के लिए पैसेंजर ट्रेन के डिब्बे में बैठे हुए थे। ट्रेन छूटने को ही थी कि पिताजी सीढ़ियों पर दिखाई दिए। माँ की जान में जान आई। वे आए और ट्रेन चल पड़ी। वह दृश्य कैसे भुलाया जा सकता है?

अब बात सन् 1957-58 की। हम राजनांदगाँव के बसंतपुर में रहते थे। शहर से चंद किलोमीटर दूर बसा गाँव। राजनांदगाँव भी इन दिनों बड़ा गाँव जैसा ही था। कस्बाई जैसा जहाँ कॉलेज थे, अस्पताल था, शालाएँ थीं। शहरी चहल-पहल थी। शांत-अलसाया सा लेकिन सुंदर। दिल को सुकून देने वाली हवा बहती थी, लोगों में आपस में बड़ी आत्मीयता थी, भाईचारा था। पिताजी राजनांदगाँव के दिग्विजय महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हुए थे और बसंतपुर से आना-जाना करते थे। कभी पैदल, कभी साइकिल से।

बसंतपुर में हमारा मकान था बढ़िया। बाहर परछी, परछी से सटा छोटा कमरा जो पिताजी की बैठक थी, दो लंबे कमरे और पीछे रसोई तथा रसोई के बाहरी दीवारों से सटा खूब बड़ा बगीचा जिसमें फलों के झाड़ थे, सब्जियाँ उगाई जाती थीं। यह मकान चितलांगियाजी का था और बगीचा भी उनका। बसंतपुर के दिन वाकई बहुत खूबसूरत थे। उसका सुखद अहसास अभी तक कायम है।

यहाँ रहते हुए कोई ऐसी घटना याद नहीं है जो पिताजी के व्यक्तित्व को नए ढंग से रेखांकित करती हो। अलबत्ता वे कितने पारिवारिक थे वह जरूर जाहिर होता है। रात को कंदील की रोशनी में वे हमें पढ़ाते थे। क्लास लेते थे। वक्त-वक्त पर मेरे साथ शतरंज खेलते थे। जान-बूझकर मुझे जिताते थे। शाम को कॉलेज से घर आने के बाद शायद ही कभी शहर जाते हो। यानी उसके बाद उनका पूरा समय हमारा था। हमारे साथ वक्त बिताते। बाते करते या फिर हाथ में किताब या कागज कलम लेकर लिखने बैठ जाते।

बसंतपुर में हम ज्यादा दिन नहीं रहे। शायद साल-डेढ़ साल। राजनांदगाँव महाविद्यालय परिसर में अंतिम सिरे पर स्थित शीर्ण-जीर्ण लेकिन महलनुमा मकान में रंग-रोगन चल रहा था, हम यहीं शिफ्ट होने वाले थे। एक दिन शिफ्ट हो गए। पुराने जमाने के बड़े-बड़े कमरों और मंजिलों वाला नहीं था - नया मकान। दरअसल राजनांदगाँव बहुत छोटी रियासत थी इसलिए महल भी साधारण थे। नीचे एक अलग-थलग कमरा जहाँ बड़े भैया रमेश पढ़ाई करते थे, दूसरे छोर पर प्रवेश कक्ष और ऊपर की मंजिल पर तीन हालनुमा कमरे, एक रसोई और खुली बालकनी। खिड़कियाँ बड़ी-बड़ी व दरवाजों के पल्ले भी रंग-बिरंगे काँच से दमकते हुए। पिताजी ने जिस कक्ष में अपनी बैठक जमाई वहाँ छत पर जाने के लिए चक्करदार सीढ़ियाँ थी जो उनकी प्रसिद्ध कविता 'अँधेरे में' प्रतीक के रुप में है। इसी कक्ष में वे लिखते-पढ़ते, आराम करते थे। जब कभी दादा-दादी राजनांदगाँव आते, उनका डेरा भी यही लगता था। दादाजी के लिए पलंग था, दादी फर्श पर बिस्तर लगाकर सोती थी। यहाँ उनकी उपस्थिति के बावजूद लिखते या पढ़ते वक्त पिताजी की एकाग्रता भंग नहीं होती थी। शुरू-शुरू में दादाजी का पलंग प्रवेश द्वार यानी भूतल पर स्थित कक्ष में रखा गया था ताकि बाथरूम तक जाने के लिए उन्हें कष्ट न हो। लेकिन पिताजी के लिए यह भी एक प्रकार से मिनी बैठक ही थी।

वे देर रात तक लिखते और सुबह होने पहले उठ जाते। करीब 4 बजे। हमें भी जगाते थे ताकि हम पढ़ने बैठे। लिखने के लिए बैठने के पूर्व चाय उनके लिए बेहद जरूरी थी। कोयला रहता था तो सिगड़ी जलाते थे या फिर रद्दी कागजों को जलाकर खुद चाय बनाते थे। कभी-कभी यह काम हम भी कर देते थे। सिगड़ी के आसपास बैठना, या फिर कागज जलाकर चाय बनाने में अलग आनंद था। आग की रोशनी में पिताजी का चेहरा दमकता रहता था। वे इत्मीनान से कंटर भर (पीतल का बड़ा गिलास) चाय पीते और फिर लिखने बैठ जाते थे। यह सिलसिला सुबह 8 बजे तक चलता था। फिर उनके कपड़े, इस्त्री करने का काम मेरा था। पैजामा-कुर्ता और कभी भी खादी की जैकेट भी।

दोपहर हो, शाम हो या फिर रात। लिखते-लिखते जब वे थक जाते, मुझसे जासूसी किताब माँगा करते तनाव मुक्त होने के लिए। मुझे उन दिनों जासूसी किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि दिन में एक किताब खत्म हो जाती। जासूसी दुनिया, जासूसी पंजा, रहस्य, जे.बी. जासूस, गुप्तचर, मनोहर कहानियाँ आदि। लेखकों में इब्ने सफी बी.ए., ओमप्रकाश शर्मा, निरंजन चौधरी, बाबू देवकीनंदन खत्री आदि। जासूसी दुनिया के लेखक इब्ने सफी बी.ए. उन्हें पसंद थे और उनके पात्र कर्नल विनोद, केप्टन हमीद को वे याद करते थे। वेदप्रकाश कांबोज के भी जासूसी उपन्यास उन्हें अच्छे लगते थे। हिंदी में रहस्य -रोमांच के उपन्यासों के अलावा वे अँग्रेजी के डिटेक्टिव नॉवेल भी खूब पढ़ा करते थे। पैरी मेसन, आर्थर कानन डायल और भी बहुत सी किताबें वे पढ़ने के लिए कहीं से लाते थे। मेरे लिए उनकी यह पसंद एक सुरक्षित व्यवस्था थी क्योंकि मुझे जासूसी किताब को कापी के भीतर छिपाकर पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती थी। माँ की डाट-फटकार से भी, मैं बचा रहता था। मुझे तब और अच्छा लगता था जब वे मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर रेखाओं को पढ़ने की कोशिश करते। मेरी हथेली की रेखाएँ बहुत कटी-पिटी हैं और अँगूठा काफी चौड़ा। मेरी माँ के अँगूठे जैसा। वे तल्लीन होकर देखते थे, बताते कुछ नहीं थे। जाहिर है ज्योतिष भी उनकी रुचि का विषय था, साइंस की तरह।

पिताजी प्रायः रोज सुबह-सुबह, अखबार के आते ही, नीचे उतर आते थे और दादाजी को अखबार की खबरें पढ़कर सुनाया करते थे। खबरों पर लंबी-लंबी बाते होती थीं। घंटे दो घंटे कैसे निकल जाते थे, पता ही नहीं चलता था। कॉलेज से लौटने के बाद शाम को भी वे दादाजी के पास बैठते थे। बातें करते थे। हमारी दादी को पढ़ने का बहुत शौक था। पिताजी कॉलेज की लायब्रेरी से उनके लिए उपन्यास-कहानी संग्रह लेकर आते थे। मुझे पढ़ने का चस्का दादीजी की वजह से हुआ। किताबें आती थी, मैं भी देखता-परखता था। कुछ-कुछ पढ़ता भी था। बंकिम चटर्जी, शरतचंद्र, प्रेमचंद, कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, आचार्य चतुरसेन, वृंदावन लाल वर्मा और यशपाल भी मेरे प्रिय लेखक थे।

बसंतपुर के तुलना में दिग्विजय कॉलेज के दिन और भी बेहतर थे। मित्रों के साथ साहित्यिक चर्चाओं का सिलसिला तेज हो गया था। दूसरे शहरों से आने वालों में प्रमुख थे शमशेर बहादुर सिंह, श्रीकांत वर्मा, हरिशंकर परसाई, आग्नेश्का कोलावस्का सोनी व विजय सोनी। प्रायः रोज आने वालों में ये प्रमुख थे - डा. पार्थ सारथी, अँग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक। कॉलेज में एकमात्र वे ही थे जिनसे प्रायः अँग्रेजी में वैचारिक बहस हुआ करती थी। डा. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी व उनका परिवार भी पास ही में रहता था पर वे शायद ही कभी आए। अलबत्ता पिताजी कभी-कभी उनके यहाँ जाया करते थे। वे भी हिंदी पढ़ाते थे। शरद कोठारी, रमेश याग्निक, जसराज जैन, विनोद कुमार शुक्ल, निरंजन महावर, कन्हैयालाल अग्रवाल, अटल बिहारी दुबे, कॉमरेड किस्म के कुछ और लोग, जिनके नाम याद नहीं, आया जाया करते थे। कॉलेज के प्रिंसिपल किशोरीलाल शुक्ल भी घर आते थे। महफिल जमती थी, बातें खूब होती थी। प्रायः शाम के बाद। पिताजी धार्मिक कर्मकांड पर कितना विश्वास रखते थे, मुझे नहीं मालूम। उन्हें मंदिर जाते न मैंने देखा न सुना। अलबत्ता दादाजी की गैरहाजिरी में या अस्वस्थ होने पर वे घर में पूजा जरूर करते थे, पूरे मंत्रोच्चार के साथ। होलिका दहन के दिन होली घर के बाहर सजाकर होली पूजा भी वे करते थे, बाकायदा धवल वस्त्र यानी धोती पहनकर। इसलिए वे नास्तिक तो नहीं थे, कितने आस्तिक वह थे, यह अब कौन तय कर सकता है? इतना जरूर कहा जा सकता है कि वामपंथी विचारधारा से सहमत होने का अर्थ नास्तिक होना नहीं है। ईश्वर में आस्था सबकी होती है, भले ही कोई कुछ भी कहे।

बहरहाल राजनांदगाँव में जितना समय भी बीता था, सुखद था, बहुत सुखद। अभावग्रस्तता कभी इतनी विकट नहीं थी कि फाके करने की नौबत आए। वरन यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि राजनांदगाँव में अर्थाभाव चिंतात्मक नहीं था। काम चल रहा था, मजे से चल रहा था। पिताजी खुश थे और हम सभी भी। छोटे थे, पढ़ते थे, खेलते-कूदते थे। सारा दिन खुशी-खुशी बीत जाता था। हमारे घर के आजू-बाजू में दो बड़े तालाब थे, हैं, जो अब और भी खुबसूरत हो गए हैं। पिताजी हमें सुबह तालाब में नहाने-तैरने ले जाते थे। तैरना हमने उन्हीं से सीखा। खुद अच्छे तैराक थे, दूर तक जाते थे। लौटने के बाद एक-एक करके हम भाई-बहनों को तैरना सीखाते थे। कभी-कभी साथ में माँ भी हुआ करती थी। घंटे दो घंटे कैसे निकल जाते थे, पता ही नहीं चलता था।

चाय और बीड़ी के बाद पिताजी को भोजन में यदि सबसे अधिक प्रिय कोई चीज थी तो वह थी दाल। तुवर दाल। दाल के बिना उनका भोजन पूर्ण नहीं होता था। वे दाल खूब खाते थे। अंडे को कच्चे निगल लेते थे क्योंकि सवाल दूध की उपलब्धता का था।

उन्हें जब कभी समय मिलता, लिखने बैठ जाते थे। एक बैठक के बाद जब वे उठते थे, नीचे फर्श पर कटे-पिटे कागजों का ढेर पड़ा रहता था जिन्हें वे सहेजकर रद्दी की टोकरी में डाल देते थे। मेरी लिखावट कुछ बेहतर थी इसलिए कई बार अपनी कविताओं की कॉपी करने देते थे। लंबी-लंबी कविताएँ। कार्बन काफी तैयार की जा सकती थी लेकिन इसके लिए पैसे की जरूरत होती है। लिहाजा पत्र-पत्रिकाओं को हस्तलिखित कविताएँ भेजने के बाद शायद कोई दूसरा ड्राफ्ट नहीं रहता होगा। यह भी संभव है प्रकाशन के लिए स्वीकार न किए जाने की स्थिति में कविताएँ लौटकर न आती हों। प्रकाशक ने वापस न भेजी हों। नागपुर में उनके एकमात्र उपन्यास का ड्राफ्ट, जैसा कि मैने सुना, खोने का संभवतः यह भी एक कारण रहा होगा।

बहरहाल उन्हीं दिनों 1962-63 में मुझे दमे की शिकायत हो गई। पिताजी के सामने नई चिंता। मेरा इलाज शुरू हो गया। पिताजी की आदत थी, जब कभी उन्हें जोर-शोर से अपनी कविताओं का पाठ करना होता था, वे हम में से किसी एक को गोद में बैठा लेते थे। चूँकि मैं बीमार रहता था अतः वे प्रायः मुझे गोद में लिटाकर कविताएँ पढ़ते थे। आगे पीछे डोलते हुए। हमें नींद लग जाती थी, उठते थे तो देखते थे - हम बिस्तर पर हैं।

चूँकि घर के आजू-बाजू तालाब था - रानी सागर और बूढ़ासागर। लिहाजा ठंड के दिनों में ठंडी हवाएँ खूब चलती थी। वातावरण में हमेशा आर्द्रता रहती थी। यह समझा गया कि मेरे दमे की एक वजह हवा में पसरी हुई ठंडक हो सकती है। फलतः शहर से दूर जैन स्कूल में मेरे रहने का प्रबंध किया गया। गर्मी के दिन थे, स्कूल में छुट्टियाँ थी। मैं कुछ दिन माँ के साथ वहीं रहा। बाद में लेबर कॉलोनी में मेरे लिए अलग से छोटा सा मकान किराये पर लिया गया जहाँ मैं और बड़े भैय्या रहने लगे। कॉलेज छूटने के बाद पिताजी रोज अपने किसी न किसी मित्र को लेकर मुझे देखने आते थे। धीरे-धीरे मेरी तबीयत ठीक होती गई और शायद जनवरी 1964 में मैं फिर से कॉलेज वाले घर में आ गया। लेकिन पिताजी बीमार पड़ गए। उन पर अकस्मात पैरालिसिस का अटैक हुआ। शायद कॉलेज से लौटते हुए वे गिर गए। उनका आधा शरीर निर्जीव हो गया, अलबत्ता चेहरा अछूता था। लेकिन शब्द टूटने लगे थे। बहुत धीमे बोल पाते थे।

वे बीमार पड़ गए। मैं ठीक होता गया। इतिहास का वह किस्सा मुझे याद आने लगा कि कैसे बादशाह बाबर ने अपने बीमार बेटे हुमायूँ की जिंदगी बचाने के लिए प्रार्थनाएँ की जो कबूल हुई। हुमायूँ ठीक हो गए। बादशाह बीमार पड़ गए और अंततः चल बसे।

क्या मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ होने वाला था? यह बात तर्कसंगत यह भले न लगे पर मैं इतिहास के उस किस्से को अपने साथ जोड़ ही सकता हूँ। दरअसल एक दिन मैं घर की बड़ी सी खिड़की पर बैठा हुआ था। घर की खिड़कियाँ कमरे के भीतर से इतनी चौड़ी रहती थी कि कोई भी उस पर आराम से बैठ सकता था। रात हो चली थी, पिताजी आए। वे अपने साथ पासपोर्ट साइज की जैकेट से वाली तसवीर लेकर आए थे। फोटो उन्होंने कब और किससे खिंचवाई थी मुझे याद नहीं। वह फोटो उन्होंने मुझे देखने के लिए दी। किंतु उनका फोटो देखकर न जाने क्यों मेरा मन रुआँसा हो गया। क्या यह कोई संकेत था?

दूसरी घटना - भोपाल रेलवे स्टेशन की। हमीदिया अस्पताल में उनकी सेहत सुधरती न देखकर उन्हें नई दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भर्ती कराने की व्यवस्था की गई थी। हम रेलवे स्टेशन पर थे। एक कंपार्टमेंट में बर्थ पर पिताजी अर्धचेतनावस्था में लेटे हुए थे। आसपास के वातावरण से एकदम बेखबर। माँ साथ में थी और पिताजी के मित्रगण - परसाई जी, प्रमोद वर्मा जी और भी कई। पिताजी की ऐसी अवस्था देखकर मन फिर भीग गया। लगा जैसे कि यह उनका अंतिम दर्शन है। वाकई मेरे लिए वह अंतिम दर्शन ही था। उनसे मिलने हम दिल्ली जा नहीं पाए। पिताजी 11 सितंबर 1964 को विदा हो गए। हूमायूँ का किस्सा मुझे लगता है, मेरे लिए हकीकत बन गया। मेरे लिए, मेरे जीवन का यह सबसे बड़ा सत्य हैं।

मुझे याद नहीं पिताजी कभी बीमार पड़े हो। ऊँचे पूरे, स्वस्थ और सुदर्शन व्यक्तित्व। हमेशा प्रसन्न रहने वाले। मैंने उन्हें गुस्से में कभी नहीं देखा। अलबत्ता कभी-कभी विषाद और चिंताएँ उनकी बेचैनी भरी चहलकदमी से महसूस की जा सकती थीं। स्वामी कृष्णानंद सोख्ता के रोड एक्सीडेंट में मारे जाने की खबर जब उन्हें मिली तो वे बेहद दुखी हुए। इसी तरह भोपाल के हमीदिया अस्पताल में बिस्तर पर पड़े-पड़े जीवन के प्रति उनकी निराशा को चेहरे पर देखा-पढ़ा जा सकता था। हालाँकि इलाज के चलते उनकी तबीयत में कुछ सुधार हुआ था। सहारा लेकर वे कुछ कदम चलने-फिरने लगे थे लेकिन इलाज का प्रभाव सीमित ही रहा। मुझे लगता है दो बड़ी घटनाओं ने उन्हें तगड़ा मानसिक आघात दिया जिसका असर उनकी सेहत पर पड़ा। पहली घटना जब तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार के पाठ्यपुस्तक के रूप में स्वीकार की गई उनकी किताब 'भारत : इतिहास और संस्कृति' पर प्रतिबंध लगा, संघ समर्थकों ने जगह-जगह किताब की होली जलाई और दूसरी घटना बीमारी के दौरान उनके लिए की गई आर्थिक सहायता की अपील। धर्मयुग में प्रभाकर माचवेजी का लेख और मदद की अपील ने उन्हें बहुत विचलित किया। स्वाभिमान पर ऐसी चोट उनके जैसा संवेदनशील कवि कैसे बर्दाश्त कर सकता था? उन्होंने इस अभियान को पसंद नहीं किया किंतु उसे रोक नहीं पाए। शारीरिक अवस्था ऐसी नहीं थी कि प्रतिकार किया जाए। पर वे बहुत दुखी थे।

पिताजी को गुजरे 52 वर्ष हो गए। आधी शताब्दी बीत गई। हम, उम्रदराज हो गए, एक को छोड़ तीनों भाई 60 के पार। इस बीच माँ नहीं रही, विवाहिता बहन नहीं रही, भाभी नहीं। कितना कुछ बदल गया लेकिन नहीं बदला तो घर का वातावरण। वह अभी भी वैसा ही है जैसा हमारे नागपुर में नई शुक्रवारी, गणेश पेठ, राजनांदगाँव में बसंतपुर व दिग्विजय कॉलेज परिसर वाले मकान में था। पिताजी की सशरीर मौजूदगी वहाँ थी और अब रायपुर में हमारे घर में उनकी अदृश्य उपस्थिति, हमारी आत्मा में उपस्थिति मौजूद हैं। इसलिए हमेशा यह महसूस होता हैं, वे कहीं गए हैं, बस आते ही होंगे।


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हिंदी समय में दिवाकर मुक्तिबोध की रचनाएँ